Wednesday, January 29, 2014
हिम्मत
सारी दुनिया के
आँसू
बटोरना चाहता हूँ
लेकिन
डूब जाने का डर है।
वास्तविकता बयाँ
करने की
हिम्मत जुटाना
चाहता हूँ
लेकिन
कत्ल हो जाने का डर
है।
कविता का वादा
मैंने
तुमसे किया है
एक कविता का वादा
कविता जो
भीड़ में भागते हुए
उस अभागे
आदमी जैसी है
जो सुबह से शाम तक
रोटी का ख्वाब
देखता है
और शाम को
बिस्तर की आड़
खोजता है।
कविता, जो कि
खोखली राजनीति के
शिकार की औलाद है
जिसे प्रसूत करने
में
मैं वेदना की उस
सीमा के पार जाता
हूँ
जो शायद ही
कोई माँ
अपने बच्चे को
जनमते वक्त
पार करती हो।
कविता, जो कि
यातना सहने की
एक प्रक्रिया है,
यातना सहने की आदत
होती है,
हर इंसान में
मैंने भी सही है
तुमने भी सही है।
यातना...
एक रिश्ता बन चुकी
है
तुम्हारे और मेरे
बीच का
जो
समाज के उन ढकोसलों
से
टूट नहीं सकता
जो बरकरार है
उस स्थितप्रज्ञ
समुद्र जैसा
जो झकझोरते
तूफान की मार से भी
अपनी जमीन
नहीं छोड़ता।
यातना, जो कि
हर वक्त जनमती है
एक कविता
उसी कविता का वादा
है
जो मैंने
तुमसे किया है।
तीन दिन
एक दिन
खिलौनों की खोज में
खो गया।
दूसरा
किताबों की मेज पर
बीत गया।
तीसरा
रोटी की चाह में
कट गया।
संसद से नुमाइश तक
हर मोर्चे के बाद
मयखाने भर जाते हैं
और
प्यालियाँ ठसाठस
पेट में उतरकर
सोचने लगती हैं -
‘‘कल हमारी माँगें
संसद सुनेगी
और राशन सरेआम
बिकने लगेगा।’’
नशे को चीरती हुई
रोशनी
जब उसके कमरे में फैलती
है
तब उसे खाली बर्तनों
के पास
बैठी उसकी असहाय
पत्नी
दिखायी देती है।
बाहर के शोर-शराबे
में
जब वह अपने हिस्से
को
खोजने लगता है
तब उसे
अपनी ही माँ-बहनों
की दुकानें
नजर आने लगती हैं।
और
वह दहाड़ने लगता है
-
‘‘कई वर्षों से मैंने अपने
परिवार को नुमाइश
में रखा है
फिर भी मेरे लिए
भूख के नाम पर
रोटी का टुकड़ा नहीं
है।’’
वह दहाड़ते-चिल्लाते
थक जाता है।
फिर कुछ नि:शुल्क
प्यालियाँ
उसके सामने आ जाती
हैं
और
फिर मयखाने भर जाते
हैं।
वह सोचने लगता है
कल मोर्चा है
मोर्चे के बाद मेरी
आवाज
संसद में गूँजेगी
और अब की बार शायद
मेरे घर के बर्तनों
में
भोजन नाम की चीज
पकने लगेगी।
विधान भवन
एक विधान है
उसका एक भवन है।
अंदर...
लहलहाते खेत
तूफान में
करकराते पेड़
सूखे बंजर
एक चर्चा है।
बाहर सूँघते हैं
लोग
घास की रोटी।
मेरा शहर
(१)
ठूँठ
हरा-भरा आदमी
जंगल से आया
शहर की झुग्गियों
में
ठूँठ बन गया।
(२)
जमीन
आसमान पाने की
लालसा
उनकी कमजोरी है
मकान पाने का
हमारा युद्ध जारी
है
जमीन का टुकड़ा
आसमान से भारी है।
(३)
रोजगार
औरत के नाम पर
नपुंसक हो जाना
मर्दों की शान है
हिजड़ों के नाम पर
पैसे की भरमार है
यह शहर है
हाँ, शहर है
जहाँ
रोजगार पाने से
हिजड़ा होना आसान
है।
(४)
आदमी
समस्याओं के ढेर
में
गड़ा है आदमी
ट्रेन के दरवाजे पर
जड़ा है आदमी
आदमियों की भीड़ में
खोया है आदमी।
दलाली
वह आयी थी बेचने
बर्तन
गोद में रिरियाता
बच्चा लेकर
मैंने बर्तनों के
भाव पूछे
वह खुद के बोल बैठी
और...
मेरे देश की
राजनीति
वेश्या के कोठे पर
दलाली कर बैठी।
आँधी-तूफान और चमगादड़
आँधी आयी
झोपड़े उड़ा गयी
तूफान...
रोटियाँ बिखेर गया
और
पेड़ पर लटका है
चमगादड़
रात के इंतजार में।
मेरी कविता
रोजमर्रा की
चहल-पहल में
मुझसे चिपक कर
चलती है
मेरी कविता।
कविता, जो
गाय, बकरी या भेड़
नहीं है
जो दुही जा सके
रोज सुबह-शाम।
वह न तो जूठन है
जो कचरा-कुंडी में
फेंकी जाती है
और कुत्ते बड़े चाव से
उसे कुरेदने लगते हैं।
दिन-रात
कविता मेरे साथ-साथ
जीते-जीते
मेरी जिजीविषा का
अहम मुद्दा
बन बैठी है।
मेरे अंतर्द्वंद्व में
पनपती कविता
समय के भूचाल से
धधककर उगल जाती है
और चलने लगती है
मेरे साथ-साथ
मुझसे चिपक कर
मेरी रोजमर्रा की
चहल-पहल में।
देहरी पर रुकी रात
उसने पहले गोली
चलायी
फिर संगीन से
उसके आँसू पोंछे
स्वतंत्रता चुपचाप
रोती रही
और
देहरी पर रुकी रात
सबेरा खोजती रही।
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