Wednesday, January 1, 2014

सिंदूर का रहस्य

सुनहरी किरणों को
रंगों में ढालती
आकाश को
शाम रंग में डुबोती
किसी शाम...

पीड़ा को महसूस करते
आवश्यकताओं के ढेर में
रास्ता खोजते
सफलता से
विफलता की ओर जाते
रास्ते पर
तुम्हारे थिरकते पैरों में
झेंप गया मेरा मन
खींच लाया तुम्हें
भविष्य के कगार पर।

तुम...
भविष्य को खोजते
सफलता से
मेरी उपयोगिता को जोड़ते
उड़ते पंछी से
आजाद उन्मुक्त
फिर भी मुझमें खोये
दूर कहीं गाँव में
गोमती के किनारे
उसकी लहरों से उछलते
मुझे खींच लेते
दूर-दूर तक
पहाड़ों-खेतों
खलिहानों के पार

और
मेरा मन
अपने अनिर्णीत रिश्ते को
याद करता
समाज की रूढ़ियों को
नजरअंदाज कर भागता
तुम्हारी आँखों तले
बोझल होने को।
निरंतर तुम्हारी
आँखों की आस
हर क्षण करती उदास
और मैं
अथाह सागर में
जहाज पर फंसे पंछी-सा
उड़ने का
फिर-फिर करता प्रयास।

तुम...
मुझे पाने की आस में
दूरियों को सिमटने के
प्रयास में
होते जाते मुझसे
दूर-दूर
और खो जाते
समाज के, संस्कृति की
रूढ़ि की आड़ में अदृश्य
और मेरा मन
विगत स्मृतियों में खोया
खोजता रहता
तुम्हारे भाल में पड़े
सिंदूर का रहस्य।

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