दिन रूठने का था
नहीं
रात मनाने की थी
नहीं
फिर भी तनहाई
हाथ-पैर फैलाकर
बैठी ही थी।
तुम चुपके से आकर
मुझे जगा रही थी
और मैं गहरी नींद
का
ढोंग रचाकर
सो रहा था।
इस डर से कि
कहीं कल को
मेरा बच्चा
भूखा न मर जाये।
No comments:
Post a Comment