Thursday, January 2, 2014

सीढ़ी पर बैठी औरत

मैं जब भी भीड़ के जंगल में
रंगों से घिसा तुम्हारा चेहरा देखता हूँ
सारा जिस्म पागलखाने में भटक जाता है।

तुम यौवनावस्था के संस्मरण-सी
सम्मुख खड़ी हो जाती हो
तुम्हारे हाथों के इशारों से
पानभरे होंठों से
मन की तरंगों की बाढ़
शरीर को बाँध तोड़ भागती है।
तुम झेलती हो खून की नदी
और कितने वंश
कितनी आबादी
यौवन के कटघरे में
बाँधती हो पेट
बिस्तर पर लेट
खोजती हो भविष्य
घृणा के अंधेरे में।

सीढ़ी पर बैठी औरत
लोकतांत्रिक देश का
सड़ा हुआ यथार्थ है
जनतंत्र कहता है।

लेकिन तुम
दुनिया की सबसे
महान औरत हो
जो सीढ़ी पर बैठ
देख सकती हो
सड़े हुए देश का
सड़ा हुआ गणतंत्र।

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