Wednesday, January 29, 2014

आत्महत्या

कल्पना की काली कोठरी में
तुम्हारी मृग-मरीचिका आशाओं को
पाने की आस में
कल जब मैंने गुजारी
सुनसान-सी अंधेरी रात
तब मैंने जाना कि
आत्महत्या
जीवन और मृत्यु के बीच
संघर्ष करती
पीड़ा की उपज है
और
तुम्हारे बिना जीवन
सूखे ताल में उगी
पानी के लिए तरसती
दूब जैसा है।

कल रात मैं
जान नहीं पाया
जीने का अर्थ।
लंबे सफर में साथ देने के
तुम्हारे इरादों में
जब मैंने पायी
एक दरार
तब मैंने सोचा
आत्महत्या
हारे हुए आदमी की
सुखद कल्पना का
आविष्कार है।

कल रात मैं
खयालों की काली कोठरी में
टटोलता रहा
भविष्य की सुनहरी किरण।
तुम्हारे वादों
और इरादों में गुँथा
मेरा जीवन
हार और जीत से
जोड़ने लगा था
आत्महत्या का संबंध।


आत्महत्या जो कि
टूटे पहाड़ के कगार पर
लटका एक झुरमुट है
जो न तो
पहाड़ की नींव तक
पहुँचा पाता है
अपनी जड़ें
न तो
आसमानी बादलों से
खींच पाता है
पानी की बौछार
और
झुलसता ही जाता है
पानी के इंतजार में
ठीक तुम्हारी मृग-मरीचिका
आशाओं की तरह।
पौ फटते-फटते
उस काली कोठरी में
मैंने देखा
मटियामेट होता
तुम्हारा दिवा-स्वप्न
जिसे
उजागर करने के प्रयास में
मैं लड़ रहा था
आत्महत्या के विरुद्ध।

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