Thursday, January 2, 2014

सपने की सतह

उस समय तक
सपनों की सतह पर
मन मूर्च्छित भाव में
खो गया था
कि...
खँडहरों में बसी
सूखी घास और
पौधों में छुपी
एक भग्न, छिन्न-विच्छिन्न
समाधि के पास
बैठा हुआ मेरा चित्र
प्रसूत होने लगा -
अपार सन्नाटा
चबूतरे पर लगा
शिलालेख टूटा
मानो जैसे
अकाल में फटे
ताल का दृश्य।

मैं चबूतरे पर लगा
शिलालेख टटोलने के
विचार में था
कि...
एक सरसराती आवाज
मेरी कनपट्टी पर
आकर थम गयी -

‘‘कौन हो तुम?
शायद कवि हो
या फिर
आदमी से ऊबे हुए आदमी
जो भटक रहे हो
इस खँडहर में अकेले।

‘‘तुम कुछ भी हो
कुछ तो हाल सुनाओ
अपने आजाद हिंदुस्तान का।
हमें तो अर्सा हुआ
क्रांति के आरोप में
फाँसी पर चढ़े
और
इस कब्र में लेटे
हमने भी कभी देखे थे
ख्वाब आजादी के।

‘‘हमने तो सुना है
तुम्हें अपने देश पर
नाज है
वहाँ जनता का राज है
फिर भी जनता नाराज है
क्योंकि
मंत्रियों के घर में
नोटों की गाज है।

‘‘हाँ, यह भी सुना है
तुम्हारे देश में
घुस आया है
आतंकवाद का भस्मासुर
बमों का वर्षाव करता
जेहाद के नारे लगाता
और
तुम्हारी सरकार को
मतली भी नहीं आयी
और पाँव भारी हो गये
उठते ही नहीं हैं
उसके कदम
उठाने की चाह में भी।

‘‘तुम्हारे देश की
निष्पाप जनता
चढ़ रही है बलि
मंदिरों में, बाजारों में
फिर भी...
जूँ तक नहीं रेंगती
इन्सानों के कानों पर।

‘‘हाँ! तुम अगर
कर सकते हो पूरी
मेरी एक ख्वाहिश
कर सकते हो
मुझे पुनर्जीवित
तो करो
और ले चलो
अपने देश में
ताकि लगा सकें हम भी
जान की बाजी
फिर एक बार
देश के हित में।’’

मैं भयभीत हो
उस सपने की सतह से
भाग रहा था
कि...
मुझे प्रतीत हुआ
जैसे...
मेरे सीने पर बैठा
एक खंजरधारी
मेरे दोनों हाथ
पैरों तले दबाये
मेरा शिरच्छेद करने की
तैयारी में हो।

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