Wednesday, January 1, 2014

आईना

मैं जब भी
अकेला होता हूँ
अपने-आपको
घनी अँधेरी नीरव
खाई में पाता हूँ।

मैं खोजने लगता हूँ
एक आईना
जिसमें तुम्हारी
उजागर छवि देख पाऊँ
लेकिन
विश्वास और अविश्वास की
हाथापाई में
भग्न हुआ शीशा
मेरे सामने बिखर जाता है
जिसके हर टुकड़े में
मैं देख पाता हूँ अपना ही
छिन्न-विच्छिन्न चेहरा।

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