Wednesday, January 1, 2014

नशे की रात

मैं
अपने अंतर की
उस गली को
ढूँढ़ रहा हूँ
जिसमें कभी मैं
नंगे पाँव घूमा था
हँसता था
खिलता था।

आज
पाँवों में जूते हैं
सर पर टोपी है
मैं मुक्त नहीं हूँ
मानो
आजीवन कारावास की
सजा भुगत रहा हूँ।

विचारों के बोझ की
टोपी बनी है
जूते की बेड़ी पड़ी है
हर धड़कन परेशान है
हर चेहरा नाराज है
जीने का राज
किसी को पता नहीं है
जीवन
कबीर की वाणी में
‘‘दुई पाटन के बीच का धान’’
लेकिन
मैं पिस चुका हूँ।

हर रात
नशे की रात करके भी
मैं अपने-आपको
जिंदा पाता हूँ
मुझे
याद रहता है
अपना माहौल
अपना समाज
अपनी नीति
और राजनीति।

मैं पागल तो नहीं हूँ
पर बड़बड़ाता हूँ
पागलों की तरह।

मैं मरना चाहता हूँ
जूते उतार फेंकने की कोशिश
टोपी उतार फेंकने की कोशिश
पर व्यर्थ।

मैं शांत हो जाता हूँ
और
याद में खो जाता हूँ
उस गली के
जिसमें मैं कभी
नंगे पाँव घूमता था
हँसता था
खिलता था।

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