रोजमर्रा की
चहल-पहल में
मुझसे चिपक कर
चलती है
मेरी कविता।
कविता, जो
गाय, बकरी या भेड़
नहीं है
जो दुही जा सके
रोज सुबह-शाम।
वह न तो जूठन है
जो कचरा-कुंडी में
फेंकी जाती है
और कुत्ते बड़े चाव से
उसे कुरेदने लगते हैं।
दिन-रात
कविता मेरे साथ-साथ
जीते-जीते
मेरी जिजीविषा का
अहम मुद्दा
बन बैठी है।
मेरे अंतर्द्वंद्व में
पनपती कविता
समय के भूचाल से
धधककर उगल जाती है
और चलने लगती है
मेरे साथ-साथ
मुझसे चिपक कर
मेरी रोजमर्रा की
चहल-पहल में।
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