स्वतंत्रता दिवस के
उस अखबार में
बलात्कार की
सनसनीखेज
खबर के नीचे
छपा था
एक विज्ञापन -
जाँघों को सुडौल
बनाने का,
एक नंगी तस्वीर के
साथ।
मानो
जैसे अखबार में
तिरंगे की कहानी
छपना
कोई मायने ही नहीं
रखता हो।
वैसे भी
स्वतंत्र
हिन्दुस्तान की
आबादी में
नंगी तस्वीरों का
सिलसिला
आजादी का एक
अदद नुस्खा बन गया
है।
उस नेतृत्वहीन
आबादी में
खोये हुए आदमी को
दंगा-फसाद
मार-काट
और
बलात्कार की खबरें
चाव से पढ़ने की
आदत-सी हो गयी है।
मानो
उसकी रगों में
दौड़नेवाला इतिहास
सफेदी पर
उतर आया हो।
इतिहास के
चलते-चलते
भविष्य की ओर
जाते-जाते
वह
भूल चुका है
पचास साल पहले
एक बुड्ढा
कौमी एकता का
वादा करके
लुढ़क गया।
अहिंसा परमो धर्म:
का
नारा देनेवाला
हिंसा का शिकार
हो गया।
वह स्वतंत्रता दिवस
को
एक खुशनुमा छुट्टी
का दिन
समझने लगा है
और
विदेशी संगीतकार के
बनाये
राष्ट्रगीत के
रीमिक्स पर
थिरकते-थिरकते
अपनी शाम
किसी डिस्को में
गुजारना चाहता है।
डिस्को
जिसे स्वतंत्र भारत
का समाज
अपनी आजादी का
एक अविभाज्य
अंग मानता है।
उसी भ्रमित समाज का
नेतृत्व करने में
नाकामयाब नेता
जो
भ्रष्टाचार के आरोप
में
भ्रष्ट न्यायिक
व्यवस्था में
बरी हो चुका है
जो अब
स्वतंत्र है
दूसरे भ्रष्टाचार
में
सहभागी होने को
ठोक देता है भाषण
देश और जनता के हित
में
मानो
सारी आजादी की लड़ाई
इसके पुरखों ने ही
लड़ी हो।
स्वतंत्रता दिवस के
जलसे में
तिरंगा फहराने के
अलावा
देशहित का
कोई भी काम
अब
बाकी न रहा हो।
इस आत्मविश्वास के
साथ
अभिवादन करता है
देशहित का
इंतजार करती
जनता का।
सौ करोड़ की
आबादीवाली जनता
जो
अपनी आजादी की
कहानी
भूल चुकी है
सोचने लगती है -
‘‘ऐ! मेरे भाया
यह
स्वतंत्रता दिवस न
हुआ
कि
झुनझुना हुआ
जिसने भी चाहा
जैसे भी चाहा
जहाँ भी चाहा
बजा लिया।’’
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