हर मोर्चे के बाद
मयखाने भर जाते हैं
और
प्यालियाँ ठसाठस
पेट में उतरकर
सोचने लगती हैं -
‘‘कल हमारी माँगें
संसद सुनेगी
और राशन सरेआम
बिकने लगेगा।’’
नशे को चीरती हुई
रोशनी
जब उसके कमरे में फैलती
है
तब उसे खाली बर्तनों
के पास
बैठी उसकी असहाय
पत्नी
दिखायी देती है।
बाहर के शोर-शराबे
में
जब वह अपने हिस्से
को
खोजने लगता है
तब उसे
अपनी ही माँ-बहनों
की दुकानें
नजर आने लगती हैं।
और
वह दहाड़ने लगता है
-
‘‘कई वर्षों से मैंने अपने
परिवार को नुमाइश
में रखा है
फिर भी मेरे लिए
भूख के नाम पर
रोटी का टुकड़ा नहीं
है।’’
वह दहाड़ते-चिल्लाते
थक जाता है।
फिर कुछ नि:शुल्क
प्यालियाँ
उसके सामने आ जाती
हैं
और
फिर मयखाने भर जाते
हैं।
वह सोचने लगता है
कल मोर्चा है
मोर्चे के बाद मेरी
आवाज
संसद में गूँजेगी
और अब की बार शायद
मेरे घर के बर्तनों
में
भोजन नाम की चीज
पकने लगेगी।
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