मैं एक बूढ़ा पीपल
हूँ
कई वर्षों से मैं
देखता आया हूँ।
बैलों की आहटों से
उगती हुर्इं सुबहें
और
किसानों के उल्लास
से भरी शामें।
एक जमाना था
गाँव की पंचायत
मेरे ही छाये तले
लगती थी।
अब जब से वह
र्इंट का पिंजरा
बना है
पंचायत वहीं लगती
है।
मैंने इस गाँव के
सुख-दुख
सब देखे हैं
कई बेटियों की डोली
मेरे छाये तले से
बिदा हो गयी है।
कई पराये गाँव की
बेटियाँ
माँग में सिन्दूर
भरे
मेरा शुभाशीष पाकर
गाँव में खुशहाली
लिये
बस गयी हैं।
मैं बहुत खुश था
वैसे जीवन अच्छा
लगता था
अब मुझे
जीना खराब लगता है
-
‘‘कुछ दिन पहले की बात है
एक शाम जब वही
पंचायतन चौधरिया
मेहतर की बेटी को
रौंदकर
मेरी ही टहनियों पर
लटकाकर चला गया था
और खुद हाथ धो
बैठा।
वह
शहर जाकर
जाँच कमीशन लाया
और खुद उसका
एक मेंबर बना था।’’
‘‘उसने मुझे खरोंचकर देखा
कहीं मुझमें तो खून
नहीं है?
कहीं मैंने यह
बलात्कार तो
नहीं किया?
फिर जाँच शुरू हुई
और वही नेता
जिसने कुछ दिन पहले
एक नींव का पत्थर
रखा था
पाठशाला बनाने के
लिए
और कह गया था...
‘‘वाह! इस पेड़ की छाया
बहुत घनी है
बच्चे खलेंगे अच्छा
रहेगा।’’
वही आज कह रहा
है...
‘‘यह पेड़!
बहुत घना है
खतरनाक है!
आज
बलात्कार हुआ।
खून हुआ
कल
कुछ भी हो सकता है
इसको फौरन काट दो।
‘‘वैसे मेरा जीना
अब निरर्थक है
मेरी टहनियों पर
गिद्ध और चीलों का
बसेरा हो गया है।
गाँववालों की नजर
में
मैं मर चुका हूँ
गाँव की बेटियाँ अब
मुझे पूजने नहीं
आतीं
मुझे इसका
गम नहीं है
किंतु भय है
पंचायत के
ठेकेदारों का
कहीं वे मुझे
उखाड़कर
इस जगह
मेहतर की बेटी के
बजाय
चौधरिया का
स्मारक न बना दें
और
मेरी डाली को
मेहतर का सर
फोड़नेवाली
लाठी न बना दें।
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