कविता के हर
पाठ के बाद
लोग
चर्चा या परिचर्चा
के
नाम पर उसे
वादों और विवादों
के बीच
घेरकर
उसकी भावनाओं को
तोड़-मरोड़कर
जोड़ देते हैं
किसी राजनीतिक दल
से
या उसकी विचारधारा
से
तब मुझे
मेरा कवि होना
नाजायज सा
लगने लगता है।
वैसे भी कविता
समाज के किसी भी
हिस्से की ठेकेदारी
नहीं है
न तो बपौती है
किसी राजनीतिक
विचारधारा की।
कविता
जो कि विचारों को
सही दिशा देने की
पाठशाला है
क्रान्ति नहीं
लेकिन
क्रान्ति की
परिभाषा है
जो हर इन्सान के
दिल में बसी
जीने की अभिलाषा
है।
कविता
जो जीती है
हर इन्सान के साथ
दिन-रात
उसे वादों में
बाँधना
महज एक चाल है।
कविता
जिसे वादों में
बाँधता
चालबाज आदमी
सिगरेटी कश पर
करता है
कविता की परिभाषा
मानो
रंडी के कोठे का
दरवाजा खटखटाता
आदमी
पत्नी की
सही परिभाषा देता
हो -
‘‘पत्नी ही
शाश्वत सत्य
खोजने का
झरोखा है
बाकी सब धोखा है।’’
मुझे मालूम है
मेरी इस कविता के
बाद भी
सवाल उठायेंगे
वे लोग
फिर भी मैं
वादों और विवादों
की
चाल से परे
लिखते ही जाऊंगा
लिखते ही
जाऊंगा...।
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